
हर मां-बाप अपने बच्चों से बहुत प्यार करते हैं। यही वजह है कि वो उन्हें हर परेशानी से बचाना चाहते हैं, उनके लिए फैसले लेना चाहते हैं, हर कदम पर उनके साथ खड़े रहना चाहते हैं। लेकिन अक्सर ये प्यार अनजाने में ऐसा रूप ले लेता है कि वो बच्चों को आज़ादी देने की जगह उन्हें कंट्रोल करने लगते हैं। जबकि सही मायनों में परवरिश का मतलब सिर्फ प्रोटेक्ट करना नहीं, बल्कि वक्त के साथ बच्चों को आज़ादी देना भी है। जब बच्चा छोटा होता है, तो मां-बाप का हर फैसला उसकी जिंदगी पर असर डालता है — स्कूल चुनना हो, खाना-पीना हो, खेलने का वक्त तय करना हो या बाहर जाने की इजाज़त। लेकिन जैसे-जैसे बच्चा बड़ा होता है, उसे अपने फैसले खुद लेने की ज़रूरत होती है। उस वक्त अगर पैरेंट्स वही पुराना तरीका अपनाते रहते हैं, हर चीज़ में दखल देते हैं या हर वक्त उस पर नज़र रखते हैं, तो ये एक ओवरकंट्रोलिंग व्यवहार बन जाता है। ऐसे में बच्चा धीरे-धीरे खुद को बंद करने लगता है। उसे लगने लगता है कि मां-बाप उस पर भरोसा नहीं करते। वो अपनी बातें छिपाने लगता है, और इस वजह से रिश्तों में दूरियां आने लगती हैं। जरूरी है कि मां-बाप समझें कि बच्चे को रास्ता दिखाना और उस पर चलने की ज़िम्मेदारी देना — दोनों में फर्क है।
बच्चे को उसकी प्राइवेट स्पेस देना बहुत जरूरी है – हर इंसान को अपनी पर्सनल स्पेस की ज़रूरत होती है — फिर वो बच्चा ही क्यों न हो। जैसे ही बच्चा किशोरावस्था में कदम रखता है, उसकी अपनी सोच बनने लगती है, उसे कुछ चीज़ें खुद से तय करने का मन करता है। ऐसे में अगर पैरेंट्स उसकी हर बातचीत, हर चैट, हर कॉल की जासूसी करते हैं, तो इससे विश्वास की दीवारें गिरने लगती हैं। बच्चे को भरोसे के साथ पालना जितना जरूरी है, उतना ही जरूरी है उसे अपनी दुनिया बसाने की छूट देना। इसका मतलब ये नहीं कि आप उसकी परवाह छोड़ दें। इसका मतलब है कि आप उसकी आज़ादी की इज्ज़त करें, और जब उसे लगे कि वो किसी मुश्किल में है, तो सबसे पहले वो आपके पास ही आए। हर पैरेंट चाहता है कि उसका बच्चा कामयाब हो। लेकिन दिक्कत तब आती है जब हम अपनी अधूरी ख्वाहिशें, अपने अधूरे सपने बच्चों पर थोपने लगते हैं। चाहे वो करियर हो, शादी हो या लाइफस्टाइल — अगर हर फैसला आप लेंगे, तो फिर बच्चे का क्या l अगर बच्चा डॉक्टर नहीं बनना चाहता, लेकिन आपने बचपन से यही सपना पाल रखा है — तो क्या आप उसे मजबूर करेंगे? क्या आपने कभी सोचा है कि हो सकता है वो एक अच्छा लेखक, डिजाइनर या शिक्षक बनना चाहता हो? जरूरी है कि हम बच्चों की पसंद-नापसंद को समझें, उनके सपनों का भी उतना ही सम्मान करें जितना अपने का करते हैं।
तुलना करना बच्चे का कॉन्फिडेंस तोड़ सकता “देखो शर्मा जी का बेटा कितना अच्छा कर रहा है।”, “तुम्हारी क्लास की नेहा को देखो, हर साल टॉप करती है।” — क्या ये बातें आपने भी कभी अपने बच्चों से कहीं हैंशायद हां। लेकिन क्या आपने सोचा है कि इन बातों से बच्चे पर क्या असर होता है? बार-बार तुलना करने से बच्चों को लगने लगता है कि उनकी अपनी पहचान, उनकी खुद की मेहनत, उनके संघर्ष की कोई कद्र नहीं है। वो सोचने लगते हैं कि उनके मां-बाप सिर्फ रिजल्ट से प्यार करते हैं, उनसे नहीं। तुलना करना बच्चे के आत्मविश्वास को अंदर से तोड़ सकता है। इसके बजाय अगर हम उनकी कोशिशों की सराहना करें, उन्हें बेहतर बनने का मौका दें, तो वो भी खुलकर अपने टैलेंट को दिखा पाएंगे।