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1 लाख डॉलर H-1B फीस: किन कंपनियों पर सबसे बड़ा असर पड़ेगा?

अमेरिका में H-1B वीज़ा पर नए नियम: आईटी कंपनियों के लिए बड़ी चुनौती!-अमेरिका में H-1B वीज़ा को लेकर जो नए नियम आए हैं, वे खासतौर पर आईटी और टेक कंपनियों के लिए एक बड़ा झटका साबित हो सकते हैं। सरकार ने अब यह तय किया है कि H-1B वीज़ा के लिए अर्ज़ी देने के साथ ही 1 लाख डॉलर (लगभग 83 लाख रुपये) की फीस जमा करनी होगी। इसका सीधा असर उन कंपनियों पर पड़ेगा जो बहुत सारे विदेशी कर्मचारियों पर निर्भर हैं। आइए, विस्तार से समझते हैं कि इस नए नियम से किन कंपनियों को सबसे ज्यादा परेशानी हो सकती है।

 बड़ी टेक कंपनियों पर असर और उनकी सबसे बड़ी चिंता-हाल के आंकड़ों के अनुसार, जून 2025 तक अमेज़न के पास सबसे ज्यादा H-1B वीज़ा वाले कर्मचारी हैं, जिनकी संख्या 10,044 है। इसके बाद टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (TCS) 5,505 कर्मचारियों के साथ दूसरे नंबर पर है। माइक्रोसॉफ्ट, मेटा, एप्पल और गूगल जैसी कंपनियां भी हजारों H-1B कर्मचारियों के साथ इस लिस्ट में शामिल हैं। डेलॉइट, इन्फोसिस, विप्रो और टेक महिंद्रा जैसी कंपनियां भी पीछे नहीं हैं। सीधे शब्दों में कहें तो, जितने ज़्यादा H-1B कर्मचारी, उतना ज़्यादा खर्च। अमेज़न जैसी बड़ी कंपनियों पर इस नियम का असर सबसे ज़्यादा दिखेगा, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति और व्यापार की विविधता को देखते हुए, वे शायद इस अतिरिक्त बोझ को संभाल सकें। फिर भी, यह उनके लिए एक बड़ी चिंता का विषय है।

 आईटी सर्विस कंपनियां सबसे बड़े खतरे में-टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़, इन्फोसिस, विप्रो और टेक महिंद्रा जैसी भारतीय आईटी कंपनियां इस नए नियम से सबसे ज़्यादा प्रभावित होंगी। अमेरिका में इन कंपनियों का काम काफी हद तक वहीं मौजूद कंसल्टेंट्स पर निर्भर करता है। ऐसे में, हर नए कर्मचारी के लिए 1 लाख डॉलर की फीस सीधे उनके मुनाफे को कम करेगी। पुराने कॉन्ट्रैक्ट्स में, इस बढ़ी हुई लागत को ग्राहकों से वसूलना बहुत मुश्किल होगा। यही कारण है कि ये कंपनियां अब अपने काम करने के तरीके को बदलने पर विचार कर रही हैं और ऑफशोर (अपने देश में रहकर काम करना) और नियर-शोर (नजदीकी देशों में रहकर काम करना) डिलीवरी पर ज़्यादा ध्यान देंगी। यह उनके लिए एक बड़ी रणनीति में बदलाव का संकेत है।

 ग्लोबल टेक दिग्गजों की अपनी रणनीति-माइक्रोसॉफ्ट, मेटा, एप्पल और गूगल जैसी बड़ी टेक कंपनियों के पास भले ही हजारों H-1B कर्मचारी हों, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत है कि वे इस अतिरिक्त खर्च को आसानी से उठा सकती हैं। ये कंपनियां अपने सबसे महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट्स, जैसे आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, क्लाउड कंप्यूटिंग और हार्डवेयर डेवलपमेंट से जुड़े कामों के लिए यह फीस दे सकती हैं। वहीं, जिन प्रोजेक्ट्स की अहमियत थोड़ी कम है, उनके लिए वे नई नियुक्तियों को धीमा कर सकती हैं या फिर काम को दूसरे देशों में भेज सकती हैं। यह दिखाता है कि कैसे बड़ी कंपनियां अपनी ज़रूरतों और खर्चों के बीच संतुलन बिठाने की कोशिश करेंगी।

 डेलॉइट और कंसल्टिंग फर्म्स की मुश्किल-डेलॉइट जैसी कंसल्टिंग कंपनियों के लिए यह स्थिति थोड़ी मिली-जुली है। हालांकि उनके पास अपने प्रोजेक्ट्स की कीमत तय करते समय इस बढ़ी हुई लागत को शामिल करने का मौका है, लेकिन सरकारी प्रोजेक्ट्स या जहाँ कड़ी प्रतिस्पर्धा होती है, वहाँ अचानक बढ़ी हुई फीस को जोड़ना आसान नहीं होता। इसलिए, यह देखना होगा कि उनके ग्राहक इस अतिरिक्त खर्च को उठाने के लिए कितने तैयार होते हैं। यह उनके व्यापार मॉडल और क्लाइंट संबंधों पर भी असर डाल सकता है।

 कंपनियों के सामने आगे का रास्ता

इस नई वीज़ा नीति के आने के बाद, कंपनियों के पास कुछ खास विकल्प ही बचे हैं: * ज़रूरी कामों पर ध्यान: केवल सबसे महत्वपूर्ण पदों के लिए ही H-1B वीज़ा फीस का भुगतान करना।
* काम का स्थानांतरण: प्रोजेक्ट्स को कनाडा और मैक्सिको जैसे पड़ोसी देशों में शिफ्ट करना, जहाँ वीज़ा नियम शायद थोड़े आसान हों।
* ऑफशोर मॉडल पर ज़ोर: अमेरिका में नई नियुक्तियाँ कम करके, अपने देश में या ऑफशोर सेंटरों में काम करने वाले कर्मचारियों पर ज़्यादा भरोसा करना।
* L-1 वीज़ा का उपयोग: जहाँ संभव हो, L-1 वीज़ा जैसे अन्य विकल्पों का इस्तेमाल करना, जो कंपनियों को अपने कर्मचारियों को दूसरे देशों में स्थानांतरित करने की अनुमति देता है।
* स्थानीय प्रतिभा को बढ़ावा: अमेरिकी नागरिकों और ग्रीन कार्ड धारकों को ज़्यादा से ज़्यादा नौकरी देना, ताकि H-1B वीज़ा पर निर्भरता कम हो सके।

नतीजा: आईटी सेक्टर में बड़ी उथल-पुथल-यह नया नियम न केवल भारतीय आईटी कंपनियों के लिए, बल्कि दुनिया भर की बड़ी टेक कंपनियों के लिए भी नई चुनौतियाँ लेकर आया है। अमेज़न और गूगल जैसी कंपनियां शायद इस अतिरिक्त खर्च को झेल लें, लेकिन भारतीय आईटी सर्विस कंपनियों को अपने काम करने के तरीके में बड़े बदलाव करने होंगे। आने वाले समय में, इसका असर अमेरिका में नौकरियों, ऑफशोरिंग के ट्रेंड और प्रोजेक्ट्स की कीमतों पर साफ तौर पर दिखाई देगा। यह आईटी सेक्टर के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हो सकता है।

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